भजन - Bhajan 58
न्याय और निर्णय के लिए एक विनंती।
भाग 58 में प्रार्थना की गई है कि भगवान दुष्टों के खिलाफ न्याय और फैसला दें। भगवान को प्रार्थना करने वाला दुष्ट लोगों को आलंबित करता है और कुरूपता करने वालों को निंदा करता है, कहता है कि उन्होंने भगवान के मार्गों से विचलित होकर ही जन्म से ही गलत राह पकड़ ली हैं। वे जैसे विषैले साँप हैं जो तर्क और धर्म की आवाज सुनने से इनकार करते हैं।
1हे मनुष्यों, क्या तुम सचमुच धर्म की बात बोलते हो?
2नहीं, तुम मन ही मन में कुटिल काम करते हो;
3दुष्ट लोग जन्मते ही पराए हो जाते हैं,
4उनमें सर्प का सा विष है;
5और सपेरा कितनी ही निपुणता से क्यों न मंत्र पढ़े,
6हे परमेश्वर, उनके मुँह में से दाँतों को तोड़ दे;
7वे घुलकर बहते हुए पानी के समान हो जाएँ;
8वे घोंघे के समान हो जाएँ जो घुलकर नाश हो जाता है,
9इससे पहले कि तुम्हारी हाँड़ियों में काँटों की आँच लगे,
10परमेश्वर का ऐसा पलटा देखकर आनन्दित होगा;
11तब मनुष्य कहने लगेंगे, निश्चय धर्मी के लिये फल है;