भजन - Bhajan 55
धोखा और विश्वास
प्रस्तावना: प्रार्थना 55 एक शोकगीत है जिसमें कवि ने एक करीबी दोस्त से धोखा खाया है। वह धोखे से होने वाले उसके दुःख, भय और भ्रम को व्यक्त करता है। कवि ने भगवान में भी विश्वास पुनः पुष्टि दी है, जिस पर उसे विश्वास है कि वह कठिन स्थिति में उसकी मदद करेगा।
1हे परमेश्वर, मेरी प्रार्थना की ओर कान लगा;
2मेरी ओर ध्यान देकर, मुझे उत्तर दे;
3क्योंकि शत्रु कोलाहल
4मेरा मन भीतर ही भीतर संकट में है,
5भय और कंपन ने मुझे पकड़ लिया है,
6तब मैंने कहा, “भला होता कि मेरे कबूतर के से पंख होते
7देखो, फिर तो मैं उड़ते-उड़ते दूर निकल जाता
8मैं प्रचण्ड बयार और आँधी के झोंके से
9हे प्रभु, उनका सत्यानाश कर,
10रात-दिन वे उसकी शहरपनाह पर चढ़कर चारों ओर घूमते हैं;
11उसके भीतर दुष्टता ने बसेरा डाला है;
12जो मेरी नामधराई करता है वह शत्रु नहीं था,
13परन्तु वह तो तू ही था जो मेरी बराबरी का मनुष्य
14हम दोनों आपस में कैसी मीठी-मीठी बातें करते थे;
15उनको मृत्यु अचानक आ दबाए; वे जीवित ही अधोलोक में उतर जाएँ;
16परन्तु मैं तो परमेश्वर को पुकारूँगा;
17सांझ को, भोर को, दोपहर को, तीनों पहर
18जो लड़ाई मेरे विरुद्ध मची थी उससे उसने मुझे कुशल के साथ बचा लिया है।
19परमेश्वर जो आदि से विराजमान है यह सुनकर उनको उत्तर देगा। (सेला)
20उसने अपने मेल रखनेवालों पर भी हाथ उठाया है,
21उसके मुँह की बातें तो मक्खन सी चिकनी थी
22अपना बोझ यहोवा पर डाल दे वह तुझे सम्भालेगा;

23परन्तु हे परमेश्वर, तू उन लोगों को विनाश के गड्ढे में गिरा देगा;