भजन - Bhajan 39
जीवन की अस्थायिता पर विचार
प्रार्थना-ग्रंथ 39 प्रार्थना-ग्रन्थ 39 एक गहरी व्यक्तिगत ध्यान है जिसमें मानव जीवन की अस्थायी स्वभाव पर विचार किया गया है। वक्ता अपनी की मृत्युव साथ अपने भूमण्डल पर समय की संक्षेपता पर विचार करते हैं। सामग्र का सामना करते हैं, एक ही समय में सीमित और शाश्वत होने का ताणतै में हैं और अपनी ही पापता की भार मानते हुए भूल गए।
1मैंने कहा, “मैं अपनी चालचलन में चौकसी करूँगा,
2मैं मौन धारण कर गूँगा बन गया,
3मेरा हृदय अन्दर ही अन्दर जल रहा था।
4“हे यहोवा, ऐसा कर कि मेरा अन्त
5देख, तूने मेरी आयु बालिश्त भर की रखी है,
6सचमुच मनुष्य छाया सा चलता-फिरता है;
7“अब हे प्रभु, मैं किस बात की बाट जोहूँ?
8मुझे मेरे सब अपराधों के बन्धन से छुड़ा ले।
9मैं गूँगा बन गया और मुँह न खोला;
10तूने जो विपत्ति मुझ पर डाली है
11जब तू मनुष्य को अधर्म के कारण
12“हे यहोवा, मेरी प्रार्थना सुन, और मेरी दुहाई पर कान लगा;
13आह! इससे पहले कि मैं यहाँ से चला जाऊँ